कविता मेरे मन की
एक कवि की कविता जो निकली है मन के तारों से --- अनूप कुमार मौर्य
सोमवार, जून 02, 2025
छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है
मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।।
शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।।
मुझको तो मेरे गाँव की ये शाम बहुत है।।
-अनूप अनुपम
जो शायरी की दुनिया में गुमनाम बहुत हैं।
जो शायरी की दुनिया में गुमनाम बहुत हैं।।
सच्चाई् झलकती नहीं तक़रीर में उनकी।।
बाहों में मेरे बाहों के घेरे नहीं डालो।।
वैसे ही मेरे सर पे ये इल्ज़ाम बहुत हैं।।
दस्तार कभी ऐसों के क़दमों में न रखना।।
मैंने कहा बैठो यहाँ कुछ हाल सुनाओ।।
रावन मिले कोई तो मुझे उससे मिलाना।।
जुल्फ़ों की घनी छाँव पे इल्ज़ाम न धरते।।
जब लोग चले आयें हैं बाज़ार की जानिब।।
उसने भी बढ़ाये हुए अब दाम बहुत हैं।।
खाये बिना ही सो गए मुफ़लिस के ये बच्चे।।
धन-धान्य भरे सड़ रहे गोदाम बहुत हैं।।
जंगल को फ़ना करके ओ हैं चैन से सोते।।
पशु पक्षियों के घर मचे कुहराम बहुत हैं।।
-अनूप अनुपम
सोमवार, मई 26, 2025
ऐब पर डाला है पर्दा रेशमी रूमाल का
कर लिए तरक़ीब सारी यत्न ढेरों भी मगर।।
शोर को चीरती आवाज़ थे बाबा साहब
शोर को चीरती आवाज़ थे बाबा साहब।।
हिंद के रत्न थे पुखराज थे बाबा साहब।।
ज़ुल्म की आंधियों पे जीत की माला पहने।।
न्याय के इक नये आगाज़ थे बाबा साहब।।
शोषितों के हक़ों की बात ही ओ करते थे।।
भेद के भाव से नाराज़ थे बाबा साहब।।
देश के क़ायदे क़ानून को रचने वाले।।
मुल्क में इल्म का सरताज थे बाबा साहब।।
दलितों के ख्वाब की तस्वीर जो गढ़ने आये।।
भारती स्वप्न के परवाज़ थे बाबा साहब।।
शील सौहार्द करुणा वा दया की परिभाषा।।
मानवी मूल्य के हमराज़ थे बाबा साहब।।
-अनूप अनुपम
शुक्रवार, अप्रैल 11, 2025
कहने को अभी बाकी अरमान बहुत हैं
कहने को अभी बाकी ये अरमान बहुत हैं।।
दिल में उठे जज़्बातों के तूफ़ान बहुत हैं।।
इन्सान बचे ही नही हैवान बहुत हैं।।
हम आज़ इसी ग़म से परेशान बहुत हैं।।
करते न ग़रीबों पे यूँ एहसान बहुत हैं।।
सुनता हूँ मेरी बस्ती में धनवान बहुत हैं।।
फुटपाथ पे क्यों सो रहे इन्सान बहुत हैं।।
खाली पड़े घर द्वार तो वीरान बहुत हैं।।
दिल में छुपा के बैठे जो शैतान बहुत हैं।।
वो पत्थरों में ढूँढते भगवान बहुत हैं।।
कुछ लोग मेरे बारे में अनजान बहुत हैं।।
उनकी न शिकायत करो नादान बहुत हैं।।
जनता से मिले इनको भी मतदान बहुत हैं।।
अब लूटने को देश के प्रधान बहुत हैं।।
लागू कभी होते नहीं फ़रमान बहुत हैं।।
दरबान सभी कर रहे यशगान बहुत हैं।।
सरकार ने दिये जिन्हें वरदान बहुत हैं।।
दिन रात वही कर रहे गुणगान बहुत हैं।।
अज्ञानियों को मिलते जहाँ मान बहुत हैं।।
गलियों में भटकते वहीं पे ज्ञान बहुत हैं।।
इस देश के ख़ातिर हुए क़ुर्बान बहुत हैं।।
वंदन है उन्हें उनके ये बलिदान बहुत हैं।।
-अनूप अनुपम
सोमवार, अप्रैल 07, 2025
अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी
अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी।।
गुलशन सा महकने में बड़ी देर लगेगी।।
चलती न बगीचों में हैं मुद्दत से हवाएं।।
ख़ुशबू को बिखरने में बड़ी देर लगेगी।।
उम्मीदे वफ़ा रखना न दुनिया में किसी से।।
पत्थर हैं पिघलने में बड़ी देर लगेगी।।
मुश्किल हो डगर फिर भी तुम्हें चलना है बचकर।।
गिरने व संभलने में बड़ी देर लगेगी।।
पौरुष पे भरोसा करो हिम्मत नहीं हारो।।
तक़दीर संवरने में बड़ी देर लगेगी।।
चट्टान बने बैठे हो तुम तो मेरे हमदम।।
दिल बनके धड़कने में बड़ी देर लगेगी।।
बदले हुए तेवर हैं ये बदली हुई रुत ने।।
हमको तो बदलने में बड़ी देर लगेगी।।
-अनूप अनुपम
मंगलवार, अप्रैल 01, 2025
मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।
1212 1122 1212 22
मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।।
यहाँ पे चेहरा ये जिसका सभी से काला है।।
भरे पड़े हैं बे ईमान ऐसे दुनिया में।।
उसे समझते हो ईमान रखने वाला है।।
निकाल देंगे तुम्हारी जो है ग़लतफहमी।।
कभी पड़ा नहीं हमसे तुम्हारा पाला है।।
ख़िलाफ़ कोई नहीं बोलता अदालत में।।
हरिक ज़बां पे उसी ने लगाया ताला है।।
रखी हुई है ये घर द्वार ज़िन्दगी गिरवी ।।
बना हुआ है यूँ लगता कहीं का लाला है।।
कभी भी करना नहीं उससे दोस्ती अनुपम।।
गले में डाल जो चलता सियासी माला है।। -अनूप अनुपम
गुरुवार, मार्च 27, 2025
दुनिया को मेरे मौला
दुनिया को मेरे मौला तूं ऐसा इमाम दे।।
इन्सान की ज़बान पे अल्ला न राम दे।।
प्यासे हुये हैं सारे इन्हें इंतज़ाम दे।।
खाली पड़े हैं मयकदे भर भर के जाम दे।।
अब तो इधर उधर की न बातें तमाम कर ।।
बेरोज़गार हो गये सब सबको काम दे ।।
ये बस्तियाँ हैं जल रहीं तेरी मशाल से।।
हो रौशनी घरों में तूू्ँ ऐसा निज़ाम दे।।
घर में हमारे इल्म कि शम्मा जली रहे।।
हमको नया ज़माना नयी सुब्हो शाम दे।।
जीवों का रक्त पीना यहाँ जब हलाल है।।
ममता दया व करुणा को मालिक हराम दे।।
सद्भावना की ज्योति जला दे समाज में।।
फैली हुई कुरीतियों को रोकथाम दे।।
बोते सृजन के बीज जो मरुथल में हैं कहीं।
मजबूर उन किसानों को कुछ एहतराम दे।।
बिकने को आदमी यहाँ लाचार है बहुत ।।
शब्दों से मेरे चोट किसी को लगे नहीं।।
वाणी मेरी ये बस में हो मुझको लगाम दे।।
सब भेद भाव मन से मिटा दे मेरे अभी।।
रुचि है न जात पात में अनुपम ही नाम दे।।
-अनूप अनुपम
गुरुवार, मार्च 20, 2025
सारे तुम्हारे दोस्त कमाने चले गए
देके हमारे हम को ये् ताने चले गये।।
सारे तुम्हारे दोस्त कमाने चले गये ।।
खेले थे गोलियाँ जहाँ चलतीं हैं गोलियाँ।
बचपन के प्यारे दिन ओ ज़माने चले गये।
वैसे उन्हें तो रहता कभी काम था नही।
फिर भी ओ् देखो कर के् बहाने चले गये।
शहरों से लौट आओ कि आँगन पुकारते।।
पंछी कहाँ पे चुगने को दाने चले गये।।
मैं रो रहा हूँ लेके् ये् काँधों पे ज़िन्दग़ी।।
सब तो लगा के मुझ को् ठिकाने चले गये।
अपना पराया हम तो कभी सोचते नहीं।।
हर इक घरों की आग़ बुझाने चले गये।।
घर द्वार खेत बाग किसी का नहीं हुआ।।
सब रह गया यहीं पे दिवाने चले गये।।
आओ बहा लें आँसू कभी उनकी राह में।
जो फ़र्ज़ इस वतन का निभाने चले गये।।
वीरान घर हुआ है यूं दौलत की चाह में।
सब क़र्ज़ ज़िन्दग़ी का चुकाने चले गये।।
जब हो सकीं न पूरी ये् घर की ज़रूरतें।।
तो बोझ ख़्वाहिशों का उठाने चले गये।।
हम मौत को गले से लगाने चले गये।।
सब साथ बैठते थे यूँ चौपाल में कभी।।
अब वक़्त फ़ुर्सतों के सुहाने चले गये।।
-अनूप, अनुपम
मंगलवार, मार्च 18, 2025
।।उसकी दहलीज़ पे गिड़गिड़ाता रहा।।
उसकी दहलीज़ पे गिड़गिड़ाता रहा।।
ओ सुना भी नहीं मैं सुनाता रहा।।
पतझड़ों का मुझे ख़ौफ़ था ही नहीं।।
ये बहारों का मौसम सताता रहा।।
रूप यौवन कभी दिख गया जो कहीं।।
बस उसी की तरफ़ मैं लुभाता रहा।।
सारे सुर थे ख़फ़ा ताल नाराज़ थे।।
बेसुरा मैं यूं ही गुनगुनाता रहा।।
इक निवाले के ख़ातिर मेरा हमसफ़र।।
उम्र भर मुझको भूखा सुलाता रहा।।
आदमी ही था मैं आदमी की तरह।।
वास्ता आदमी का निभाता रहा ।।
-अनूप, अनुपम
।।गलतियाँ अपनी कर लो सभी ठीक तुम।।
काम करते रहो सारे निर्भीक तुम।।
यूँ कबूतर फ़साना पुराना हुआ।।
लेके आओ नयी कोई तकनीक तुम।।
पायलों की खनक घुल गयी कान में।।
आ गये हो मेरे कितने नज़दीक तुम।।
बन गये सब हक़ीक़त फ़साने मेरे ।।
करने आये नहीं यार तसदीक़ तुम।।
इस मुहब्बत से दिल भर गया हो अगर।।
ढूँढ़ लो फिर जहाँ कोई रमणीक तुम।।
अब लड़कपन गया औ जवानी गयी।।
ज़िन्दगी की पकड़ लो सही लीक तुम।।
(-अनूप , अनुपम )
रविवार, मार्च 16, 2025
गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो
कितने ज़ालिम हैं बैठे मेरे गाँव में।।
नाम सबका गिना दूँ अगर तुम कहो।।
रात होली जली है तो मैं भी जला।।
गाँव सारा जला दूँ अगर तुम कहो।।
कोई शिक्षा का स्तर यहाँ पे नहीं।।
तुम किताबों से कर लो अगर दोस्ती।।
गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो।।
ये शराबों की जब से दुकाँ आ गयी।।
गाँव मेरा ये पूरा शराबी हुआ।।
रात दिन बैठ पीते हैं मदिरा को ये।।
ज़हर इनको पिला दूँ अगर तुम कहो।।
गालियाँ सुन के लगती है गोली मुझे।।
माफ़ कर दूँ मैं कैसे इन्हें इस तरह।।
इन सपोलों में इतना हलाहल भरा।।
मैं सुदर्शन चला दूँ अगर तुम कहो।।
कोई पर्दा नहीं बाप भाई से अब।।
यूं बे पर्दा हुयीं हैं बहू बेटियाँ।।
सर से चुनरी सरक ये न जाए कहीं।।
मैं दुपट्टा उढ़ा दूँ अगर तुम कहो।।
इश्क़ के नाम पर होता व्यभिचार है।।
अब तो रहना यहाँ भी गुनहगार है।।
ऐसी दुनिया मिटा दूँ अगर तुम कहो।।
गाँव की हर गली बन गयी त्रासदी।।
मैंने ढूँढा यहाँ पर नहीं है ख़ुशी।।
ताल पोखर में बहते हुए जल तरंग।।
गीत इनका सुना दूँ अगर तुम कहो।।
फिर से बहने लगी ये बसन्ती हवा।।
प्रेम की ऐसी सुन्दर कलाओं से मैं।।
जो तरफ़दार हैं झूठे मक्कार हैं।।
यार हैं ये नहीं ये तो गद्दार हैं।।
जिनमें में मेरे लिए है मुहब्बत नहीं।।
ऐसे रिश्ते भुला दूँ अगर तुम कहो।।
कवि-अनूप, अनुपम
गुरुवार, मार्च 13, 2025
यूं आँखों में तेरी इनायत नहीं है
यूं आँखों में तेरी, इनायत नहीं है।।
ये शर्मो हया सब,अदाकारियाँ हैं।।
कि सब कुछ है तुझमें,नज़ाकत नहीं है।।
क़िताबी ये बातें, किया मत करो तुम।।
ज़माने में इसकी,हक़ीक़त नहीं है।।
अकेले रहो तुम,ख़ुमारी में अपनी।।
किसी से जो मिलती,तबीयत नहीं है।।
तूं होगा ख़ुदा कोई, अपने लिए पै।।
मैं काफ़िर हूँ,मुझमें अक़ीदत नहीं है।।
फ़रेबों की दुनिया है, छलिया बहुत हैं।।
नहीं होगी तुमसे,ये बन्दा नवाज़ी।।
तो मुझसे भी होती,इबादत नहीं है।।
प्रजा ये ग़ुलामी हमेशा सहेगी।।
जो ज़ुल्मों से करती बग़ावत नहीं है।।
बदलती है आशिक हज़ारों तरह के।।
तवायफ है ये बस,सियासत नहीं है।।
ज़माने में सिक्का, यूं चलता तुम्हारा।।
जबां पे किसी के, हुकूमत नहीं है।।
चलेगा किसी दिन,तो चर्चा हमारा।।
दलीलें नहीं कोई, चलतीं वहाँ पे।।
जहाँ पे तुम्हारी,अदालत नहीं है।।
शराफ़त की बातें,तो करता नहीं ओ।।
-अनूप,अनुपम
मंगलवार, मार्च 11, 2025
ये हिन्दुस्तान की ख़ुशबू
हरे मैदान की ख़ुशबू।।
यहाँ होली सी आती है,
मिरे रमज़ान की ख़ुशबू।।
हवायें शहर में लातीं हैं,
जब बाग़ान की ख़ुशबू।।
महक जाती है् सांसों में,
भरे खलिहान की ख़ुशबू।।
यहीं खुसरो के् घर खेली,
यहीं तुलसी के घर खेली।।
भजन मीरा का् गाती सी,
यहाँ रसखान की ख़ुशबू।।
जले शैतान की होली,
उड़े ईमान की ख़ुशबू।।
तुम्हारे दीप से आये,
अगर लोबान की ख़ुशबू।।
कृष्ण के ज्ञान की महिमा,
बुद्ध के ध्यान की ख़ुशबू।।
बहे तुलसी की् बगिया में,
मिरे कुरआन की ख़ुशबू।।
वही है आन की ख़ुशबू,
वही है शान की ख़ुशबू।।
जहाँ टैगोर गातें हैं,
वतन के गान की ख़ुशबू।।
-अनूप अनुपम
सोमवार, मार्च 10, 2025
प्यार का इक नया फ़लसफ़ा हो गए।।
प्यार का इक नया फ़लसफ़ा हो गए।।
रूप देखा तो फ़िर आइना हो गए।।
ऐसे पत्थर थे ओ जो पिघलता नही।।
प्रेम के राग पर मोम सा हो गए।।
लफ्ज़ ज़ख्मों को मरहम लगाने लगे।
दर्द सदियों पुराने दवा हो गए।।
कह दिया जब हक़ीक़त सरे बज़्म में।
मेरे अपने भी मुझसे ख़फ़ा हो गए।।
अब वफ़ाओं पे इनके भरोसा नही।।
हुस्न वाले यहाँ बेवफ़ा हो गए।।
मोह लेतीं हैं, मन को ये बातें तिरी।।
तुम तो इन्सान से, देवता हो गये।।
तुम तो सिद्दार्थ का, कोई उपदेश थे।।
हम तो ईमाम का, कर्बला हो गये ।।
प्रेम का ये चलन, तुम न समझे लखन।।
स्वप्न मेरे, सभी उर्मिला हो गये ।।
चलने वाले थे, जो भी सफ़र के मिरे।।
दो क़दम जो चले, काफ़िला हो गये ।।
मंज़िलो का तो कोई, पता ही नहीं।।
हम बिखर के कहाँ, रास्ता हो गये।।
-अनूप अनुपम
रविवार, मार्च 09, 2025
उड़ के जाने कहां से धुआं आ गये
212 212 212 212
उड़ के जानें कहाँ से, धुआँ आ गये।।
रूबरू आज़ ज़ख्मे, निशाँ आ गये।।
झूठ छल दम्भ के, आज़ बाज़ार में।।
तुम मुहब्बत का लेके, दुकाँ आ गये।।
उसने धरती पे जब भी,जलाए दिये।।
भर के बाहों में हम,आसमाँ आ गये।।
यूं किसी से नहीं, फिर हुआ राब्ता।।
दरमियाँ तेरे मेरे, मकाँ आ गये।।
जाने किसकी रुहानी, ग़ज़ल छू गयी।।
बेजुबानों के मुँह में, ज़बाँ आ गये।।
कोई तेरी यहाँ, बात करता नहीं।।
कैसी दुनिया है, ये हम जहाँ आ गये।।
- अनूप अनुपम
ये दावे से अपना ज़िगर बोलता है
ये् दावे से् अपना, ज़िगर बोलता है।।
कि दुनिया में,अक्लो हुनर बोलता है।।
है् बातों का् जो भी, असर बोलता है।।
मिरा गाँव क़स्बा, नगर बोलता है।।
ओ जब भी जहाँ भी, जिधर बोलता है।।
हमेशा ही् झूठी, ख़बर बोलता है।।
कहा था ये् मैंने की्, मत बोलना तुम।।
ओ् क़ायल है् देखो, मगर बोलता है।।
भरोसा नहीं कोई, सीरत पे उसकी।।
ओ बातें इधर की, उधर बोलता है।।
जो् औरों से नज़रें, मिलाता नहीं था।।
छुपा कर ओ हमसे, नज़र बोलता है।।
ये उम्मीद सब हैं, लगा कर के बैठे।।
कि अबकी दफ़ा, ओ किधर बोलता है।।
-अनूप, अनुपम
बड़े नासमझ हो
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बड़े नासमझ हो, वफ़ा ढूँढते हो।।
कि दुनिया में आके, ख़ुदा ढूँढते हो।।
पता भी है तुमको,कि क्या ढूँढते हो।।
सुराही गरल की, सुधा ढूँढते हो।।
ये लोगों में क्या है, बचा ढूँढते हो।।
गिलासें हैं खाली, भरा ढूँढते हो।।
मुहब्बत कि हमसे, यूं बातें न पूँछो।।
ये बातों में क्या है, रखा ढूँढते हो।।
नहीं है नशा कोई, बोतल में यारों।।
शराबों में विष है, दवा ढूँढते हो।।
भटकते रहोगे, फ़रेबी अदा में।।
कहाँ ज़िन्दगी का, पता ढूँढते हो।।
किये पर ही अपने, भरोसा नहीं अब।।
लकीरों में क्या है, लिखा ढूँढते हो।।
लहू से लिखी तुम, ग़ज़ल क्या कहोगे।।
यहाँ किस को, काँटा चुभा ढूँढते हो।।
धधकती हुई आज़ होली से पूछो।।
मेरा दिल है कैसे जला ढूँढते हो।।
वहाँ तक तो जाती दुआ भी नहीं है।।
उधर किस तरह मैं गया ढूँढते हो।।
लगाते नहीं एक पौधा भी अनुपम।।
नये रुत कि फिर भी हवा ढूँढते हो।।
-अनूप अनुपम
गुरुवार, सितंबर 22, 2022
सात फेरों के सातों कथन याद हैं।
सात फेरों के सातों कथन याद हैं।।
क्या दिये तुमको अपने वचन याद हैं।।
व्यग्र होकर बहे थे जो अभिसार में।
अश्रु से ओ धुले क्या चरन याद हैं।।
प्यार में ऐसे लम्हें न आयेंगे अब ।
नागफनियों के चुभते शयन याद हैं।।
आज़ भी गूंजती है सदा हर तरफ।
साथ घूमें ओ क्या वेणु वन याद हैं।।
चिलचिलाती हुयी धूप में जानेमन।
किस तरह से जले ये बदन याद हैं।।
प्यार के पँख फैला के उन्मुक्त मन।
जिसमें दोनों उड़े ओ गगन याद हैं।।
अब मुहब्बत नहीं है न शर्मो हया।
क्या यही आशिकी के चलन याद हैं।।
बिन हमारे गुज़रती है कैसे तेरी।
बांसुरी के बिना क्या किशन याद हैं।।
पुष्प एहसास के जो भी तुमने दिये।
प्रेम के हर सुवासित सुमन याद हैं।।
-अनूप कुमार अनुपम
रविवार, अगस्त 07, 2022
इक मीरा मेरे गाँव में
इक मीरा मेरे गाँव में
नव ज्योति की नव किरणों में।
झील सी पावन लहरों में।
रात की खिली चाँदनी में।
सुबह की गाती रागनी में।
कोयल जैसे पेड़ों पर।
सावन जैसे मेघों पर।
घनघोर घटा छाये मस्तानी।
होकर पागल नाचे दीवानी।
बाँध के घुंघरू पाँव में।
इक मीरा मेरे गाँव में।
लोक लाज सब छोड़ चली।
वह गाती भाव बिभोर चली।
बंसी की धुन की ओर चली।
इक पीपल की छांव में।
इक मीरा मेरे गाँव में।
चलते चलते पाँव थके हैं।
अब तक हम यहीं रूके हैं।
आ हम दोनों उस पार चलें।
बैठ एक ही नाँव में।
इक मीरा मेरे गाँव में
-अनूप कुमार अनुपम
शनिवार, अगस्त 06, 2022
मन की गली
फूल ज़ख्मों पे अब फिर खिलेगा नहीं।
कारवां है मिरा ये रुकेगा नहीं ।।
देख लो ढूंढ कर सारे संसार में।
कोई आशिक तुम्हें फिर मिलेगा।।
है क़लम की क़लम उसको उसकी कसम।
सर हो जाये क़लम पर झुकेगा नहीं।।
ये है मन की गली जो बड़ी साँकरी।
इस गली में तिरा कुछ बचेगा नहीं।
भूल जाऊं तुम्हें ये है मुमकिन कहाँ।
नाम तेरा यहाँ से मिटेगा नहीं।।
-अनूप कुमार अनुपम
बुधवार, अगस्त 03, 2022
बांसुरी लिए
212 121 212 122 212 2
आइना दिखा रहा है ज़िन्दगी को देखते हो।।
आजमा रहा है वह भी आदमी को देखते हो।।
सुन वही सदायें आ रही गुलों से बांसुरी लिए।
रसूल
हर्फ तो अपने उसूल पर लिक्खा जायेगा।।
ओ ख़ुदा है तो रसूल पर लिक्खा जायेगा।।
कौन है जो बैठ कर है लिखता मेरे घर में।
मेरे खातिर बे फजूल का लिक्खा जायेगा।।
-अनूप कुमार अनुपम
गुफ़्तगू
ग़ज़ल तो इशारों में गुफ़्तगू करती है।।
सुना है नज़ारों में गुफ़्तगू करती है।।
लबों पे खिले मेरे ओस के मोती हैं।
वो है की शरारों में गुफ़्तगू करती है।।
तिरे हुस्न का कोई तो ये जलवा देखे ।
खिजां अब बहारों में गुफ़्तगू करती है।।
नदी है समन्दर बेताब हैं होने को।
झलक है आबशारों में गुफ़्तगू करती है।।
मुकद्दर ये सब कुछ दे देना चाहे उसको।
फ़कीरी किनारों में गुफ़्तगू करती है।।
-अनूप कुमार अनुपम
शेर
कौन रोकेगा जो है होने वाला।।
कोइ भी तेरा नहीं रोने वाला।।
फिर वही है चाल सियारों वाली।
फिर वही शेर है सोने वाला।।
-अनूप कुमार अनुपम
सुर ताल लय
सुर और तालों के लय से बात करता हूँ।।
मै इस जहाँ में हर शय से बात करता हूँ ।
ओ गर शराब है तो खराब है यारों।
मै हर घड़ी उसी मय से बात करता हूँ।।
अच्छा हुआ है अब हार ही गया हूँ मैं।
भीरू से अब नहीं जय से बात करता हूँ।।
ओ मौत है उलझती है ज़िन्दगी मेरी।
मैं मौत के इसी भय से बात करता हूँ।।
-अनूप कुमार अनुपम
जवानी
नदी को उसी ने रवानी दी।।
उसी हाथों में है किताब तेरी।
मुहब्बत की जिसने कहानी दी।।
चलन मेरा
छुपा लेगा क्या हां चलन मेरा।
फना तो करो अब सुखन मेरा।।
शमा जलती है सीने में तेरे।
सुलगता है ये तन बदन मेरा।
हवा ढूँढती है अदा मेरी।
तूँ कब से है बिछडा़ चमन मेरा।।
वतन के लिए जो जिया होगा।
उसी का होगा ये वतन मेरा।।
रकीबों तुम्हें ये हिदायत है।
कभी छूना मत ये कफ़न मेरा।।
-अनूप कुमार अनुपम
रविवार, जुलाई 31, 2022
कयामत
बच्चों की नटखट शरारत हो तुम।।
मेरी जां मेरी मुहब्बत हो तुम।।
यारों की महफ़िल कबीरा खेले।
दुनिया में जैसे अदावत हो तुम।।
बस काबा काशी व दीनों मज़हब।
अपनों से करती बगावत हो तुम।।
बंधन में रिस्ते दिलों पे बंधन।
सावन की पावन अकीदत हो तुम।।
दिन भर खाती गिलहरी के जैसी।
ज़ालिम हो कितनी सियासत हो तुम।।
अँधेरा ये कैसा दीपक घर में।
मेरी माँ कैसी क़यामत हो तुम।।
-अनूप कुमार अनुपम
अजां है ग़ज़ल
बेजुबानों की महकी जबां है ग़ज़ल।।
परिन्दों कीय चहकी अजां है ग़ज़ल ।।
ग़ज़ल तो समेटे खुसबू आती है।।
सियासत से नफरत की बू आती है।।
-अनूप कुमार अनुपम
किताब
ज़िन्दगी मेरी किताब है।
लिखी गयी यह कैसे कैसे।
कुछ पन्ने बारिश में गले।
कुछ फटे वेद पुराणों जैसे ।
कुछ लगते गीता कुरानों जैसे।।
कुछ पर तेरा नाम लिखा है ।
कुछ पर रेखाएं खीचीं गयीं हैं ।।
कुछ आँखों की जलधारा से।
बार बार सीचीं गयीं हैं।।
दिखते हैं कुछ बंजर जैसे ।
कुछ में दिखा समन्दर जैसे ।।
कुछ पन्ने हैं कोरे कोरे।
सब हैं बस तेरे लिए छोड़े ।।
कर आके तू इसको पूरा।
तू अपने कलम की साज है ।।
हाँ अंदाज़ यही आवाज यही।
---अनूप कुमार अनुपम
शनिवार, जुलाई 30, 2022
ताले
हर घर में यही लाले पड़े हैं।।
गोरे हैं तो क्यों काले पड़े हैं।।
खाने को तो इक दाना नहीं है।
गोदामों में क्यों ताले पड़े हैं।।
-अनूप कुमार अनुपम
तोता
हमीं ने तोते में अपनी जागीर रख दी है।।
सभी ने मेरे गर्दन पर शमशीर रख दी है।।
किसी जादूगर की ये साज़िश है छुपा करके।
मिरी आँखों में तेरी तस्वीर रख दी है।।
-अनूप कुमार अनुपम
शमशीर-तलवार
जागीर-दौलत
चला गया
खाबों के चरागों को बुझाता चला गया।।
इक शख्स था जो राह दिखाता चला गया।।
फूलों से सिकायत नहीं काटों से जा मिले।
हर शख्स मुझे यूं ही सजाता चला गया ।।
बादल ओ कहानी तो कहानी ही रह गयी।
आबो-हवा आँखों से बहाता चला गया।।
गम हैं हुए रुसवा अब शीशे की चोट पे।
रोते हुए हर पल को हँसाता चला गया।।
रुख पे हैय उसके वह लिक्खी हुयी ग़ज़ल।
क़दमों के निशां मैय मिटाता चला गया।।
हर वक्त उसी दर को बताता चला गया।।
उस शख्स ने अनुपम को बदनाम है किया।
ऐबों कोअ जिसके मैं छुपाता चला गया।।
-अनूप कुमार अनुपम
शुक्रवार, जुलाई 29, 2022
साहिर
आँखों में सब कुछ है कहीं ज़ाहिर न मिलेगा।
ये सब पढ़ने में कोइ अब माहिर न मिलेगा।।
अफसाने मत ढूँढो मिरे खाबों के चरागों।
इनको पढ़ने वाला ओ अब साहिर न मिलेगा।।
-अनूप कुमार अनुपम
गुरुवार, जुलाई 28, 2022
ख्याल
ख्यालों को भी ख्याल नहीं होगा।।
मेरे जैसा हाल नहीं होगा।।
लब तो खामोश ही हैं बहारों में ।
होठों पर अब सवाल नहीं होगा।।
-अनूप कुमार अनुपम
गुरुवार, जुलाई 14, 2022
सारे उड़ते हुए ओ गगन ले गये।
सारे उड़ते हुये ओ गगन ले गये।।
फूल खुशियों के रंगो चमन ले गये।।
ख़्वाब आँखों में थे ओ चुरा कर कहीं।
आज नयनों से मेरे नयन ले गये।।
जुल्फ को इक अँधेरी गुफ़ा कह दिया।
ये अंधेरे मिरे सब किरन ले गये।।
मेरा क़ातिल है ओ देख हँस के ज़रा।
छीन मुझसे मेरा बांकपन ले गये।।
डोलियाँ देखो उनकी सज़ी प्यार से।
कितनी लाशों के ज़ालिम कफ़न ले गये।।
बज़्म में आज़ उनकी तरफदारी में।
उठ के महफ़िल से हम अन्जुमन ले गये।।
मन के मन्दिर से ओ आरती के लिए।
नोच भंवरों के सारे सुमन ले गये।।
मैं अकेला अकेला अकेला चला।
राह में मेरे तन से बदन ले गये।।
स्वप्न से है तरी आँसुओं से भरी।
साथ मीरा का कोई कथन ले गये।।
-अनूप कुमार अनुपम
उठ रही है अगर कल्पना गर कोई।।
उठ रही है अगर कल्पना गर कोई।
शब्द से पूछो लो भावना गर कोई।।
गीत बन जाऊँ मैं रंग लहराऊँ मैं।
हो रही हो कहीं प्रार्थना गर कोई।।
खास रक्खो न तुम दर्द है जो तेरा।
आम कर दो सभी व्यंजना गर कोई।।
श्याम गिरधर कहो चाहे नटवर कहो।
मन है कोई यहाँ अनबना गर कोई।।
दीप बनकर जलूँ साथ उसके चलूँ।
कर रही हो सखी वन्दना गर कोई।।
सात रंगों का स्वर है तुम्हारे लिए।
खींच दो तुम जहाँ अल्पना गर कोई।।
द्रोण को मैं हवन कर दूँ सारा जीवन।
कर ओ एकलव्य रहे साधना गर कोई।।
प्राण पर हो लिखी अर्चना गर कोई।।
देख लो आके पलकों में क्या है रक्खा।
हर नज़र है हसीं आशना गर कोई।।
अपने आंचल में मुझको छुपा लेना तुम।
करते बादल झुके गर्जना गर कोई।।
देख पत्थर न फिर से चला देना तूँ।
मिल ओ जाये कभी आयना गर कोई।।
दे दे फाँसी मुझे मैं सितमगर तेरा।
चाहले यदि मुझे फाँसना गर कोई।।
-अनूप कुमार अनुपम
बुधवार, जुलाई 13, 2022
वक्त मरहम है सब भुला देगा।।
वक्त मरहम है सब भुला देगा।
यानी तूँ भी हमें सज़ा देगा।।
और तो कुछ बचा नहीं तेरा।
इससे ज़्यादा तूं क्या देगा।।
शक्ल मिलती नहीं किसी से।
आँखों में क्या है आइना देगा।
मिल गया गर ओ दिलजला कोई।
आग दुनिया में फ़िर लगा देगा।।
तन बदन में सुलगती है साकी।
ज़ख्म मुझमें है तो हवा देगा।।
-अनूप कुमार अनुपम
मंगलवार, जुलाई 12, 2022
इस कदर रूठ कर मुस्कुरा दीजिए।।
इस कदर रूठ कर मुस्कुरा दीजिए।
मेरे ज़ख्मों को भी कुछ हवा दीजिए।।
गर न चाहें तुम्हें फिर भी चाहें तुम्हें।
अपने क़ातिल को ऐसी सजा दीजिए।।
पाँव थक जायें न चलते चलते कहीं।
उसके घर का कोई तो पता दीजिए।
अबके बिछड़े तो शायद मिले ना कभी।
राज जो कुछ भी है सब बता दीजिए।।
ख़्वाब आँखों के ओ पढ़ न डाले कहीं।
मेरी हसरत को उससे छुपा दीजिए।।
ऐसे बीमार को तुम हो देते ज़हर।
दर्द बनकर कोई तो दवा दीजिए।।
कन्ठ अवरुद्ध होने लगें हैं मेरे।
मेरे नगमों को अपना गला दीजिए।।
अब रहे मत ओ बाकी किसी की कशिस।
मेरे दुश्मन को भी मशविरा दीजिए।।
प्यार को प्यार से अब लगा कर गले।
ऐब जो भी हैं उसके भुला दीजिए।।
आये गीतों में फिर इक नयी ताज़गी।
मुल्क जंगल है अब इक लता दीजिए।।
अश्क ढूँढे़ नज़ारों में चारों तरफ ।
मेरे आँखों को सावन बना दीजिए।।
धूप ऐसी रहे की पिघल जाऊँ मैं।
मुझको इतना न अपनी वफ़ा दीजिए।।
हम तो भूखे हैं नंगे भिखारी सही।
तेरे घर में जो कुछ है बचा दीजिए।।
चाँदनी रात तारों की सौगात हो।
ऐसी महफ़िल में उसको बुला दीजिए।
भूल जाना हमारी तो फितरत नहीं।
भूल जाऊँ अगर तो बता दीजिए।।
मैं हूँ गुमसुम कहीं उसके एहसास में।
नींद आये तो मुझको जगा दीजिए।।
गर छुपी हो किसी भी शराबों में ओ।
जाम जितने भी हों सब पिला दीजिए।।
चाक दिल है मेरा हैं हजारों सितम।
दर्द हद से जो गुज़रे रुला दीजिए।।
प्यास देखो पपीहे सदा दे रहे।
प्रेम की आज़ गंगा बहा दीजिए।।
सोमवार, जुलाई 11, 2022
जाम हाथों से यूँ छूटकर गिर पड़े।।
जितने शीशे थे सब टूटकर गिर पड़े।।
अश्क आँखों में थे जो छिपे प्यार के।
रूख पे मेरे वही रूठ कर गिर पड़े।।
हाल पूछों न कुछ उसके दीदार का।
कितने भँवरे मज़ा लूटकर गिर पड़े।।
उनके माथे पे था एक दर्द ए शिकन।
फूल लहजों के सब फूट कर गिर पड़े।।
यार हमने उगाये फजा़ में हिना।
उनके हाथों पे जो बूटकर गिर पड़े।।
ये है हिज्रे सफ़र हो न उसको ख़बर।
ज़हर सारा हमीं घूँटकर गिर पड़े।।
-अनूप कुमार अनुपम
शनिवार, जुलाई 09, 2022
सिपाही क्या है जिसके हाथ से तलवार गिर जाये
ओ मांझी क्या है जिसके हाथ से पतवाार गिर जाये।।
वही तलवार उनकी है वही हैं साहिबे मसनद।
कलम को धार दो यारों तो ये सरकार गिर जाये।।
ज़माने में बड़ा मुश्किल है सच को सच कहे देना।
पता भी है नहीं ये कब दरो-दीवार गिर जाये।।
सजा के फूल जिस पर ओ रखा था आलमारी में
हवाओं के उड़ानों से वही अखबार गिर जाये।।
नज़र तो कर इधर भी की करम हो हाल पर मेरे।
नहीं तो क्या पता है कब दिले बीमार गिर जाये।।
तुम्हें अपनी पड़ी है बस तुम्हारा काम बनता है।
तुम्हारा क्या हमारा तो भले किरदार गिर जाये।।
हमारे पास फिर भी है बची ये प्यार की दौलत।
न जाने कब तुम्हारे हुस्न का बाज़ार गिर जाये।।
-अनूप कुमार अनुपम
बुधवार, जुलाई 06, 2022
ग़ज़ल होती है
122 221 212 222
दिलों में जज़्बात हो ग़ज़ल होती है।
बिना मौसम बरसात हो ग़ज़ल होती है।।
हमेशा उसका जिक्र उसकी बातें।
किसी से भी बात हो ग़ज़ल होती है।।
सफर में है हमसफर की ख्वाहिश जानां।
कहीं पर भी रात हो ग़ज़ल होती है।।
कभी जब उनसे हो दिल्लगी का वादा।
सभी को ओ ज्ञात हो ग़ज़ल होती है।।
हँसी हो महफ़िल में ओ हसीं आंगन में।
खुशी की बारात हो ग़ज़ल होती है।।
दुआ में दिल और ज़िन्दगी भी सबको।
मिली ये सौगात हो ग़ज़ल होती है।।
ये चारों खाने हैं जाम चक्का वक्का।
सुलभ यातायात हो ग़ज़ल होती है।।
सभी अपने हो मिलें हो अपनेपन से।
वफ़ा मौजूदात हो ग़ज़ल होती है।।
लहू सबका है वही बदन सबका ओ।
किसी की भी जात हो ग़ज़ल होती है।।
मुहब्बत में ही मिलीं हैं ये सौगातें।
मिली जब खै़रात हो ग़ज़ल होती है।।
- अनूप कुमार अनुपम
बुधवार, जून 30, 2021
दुश्मनी है तो दोस्ती होगी
शुक्रवार, मार्च 13, 2020
अधूरी ग़ज़ल
बुधवार, मार्च 11, 2020
शायरा
रविवार, मार्च 08, 2020
शेर
शुक्रवार, मार्च 06, 2020
वक्त का ऐतबार
मेरी आँखों में तेरी चाह के जुगनू आये
मंगलवार, अप्रैल 23, 2019
मुहब्बत का पूरा असर देखना है।।
मुहब्बत का पूरा असर देखना है।।
कसक जो इधर है उधर देखना है ।।
अदायें दिखाकर किया जिसने घायल।
छिपी है कहाँ ओ नज़र देखना है।।
-अनूप कुमार अनुपम
छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है
छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है।। मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।। शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।। मुझको तो मेरे गाँव की ये...
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122 122 122 122 बड़े नासमझ हो, वफ़ा ढूँढते हो।। कि दुनिया में आके, ख़ुदा ढूँढते हो।। पता भी है तुमको,...
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