प्यार का इक नया फ़लसफ़ा हो गए।।
रूप देखा तो फ़िर आइना हो गए।।
ऐसे पत्थर थे ओ जो पिघलता नही।।
प्रेम के राग पर मोम सा हो गए।।
लफ्ज़ ज़ख्मों को मरहम लगाने लगे।
दर्द सदियों पुराने दवा हो गए।।
कह दिया जब हक़ीक़त सरे बज़्म में।
मेरे अपने भी मुझसे ख़फ़ा हो गए।।
अब वफ़ाओं पे इनके भरोसा नही।।
हुस्न वाले यहाँ बेवफ़ा हो गए।।
मोह लेतीं हैं, मन को ये बातें तिरी।।
तुम तो इन्सान से, देवता हो गये।।
तुम तो सिद्दार्थ का, कोई उपदेश थे।।
हम तो ईमाम का, कर्बला हो गये ।।
प्रेम का ये चलन, तुम न समझे लखन।।
स्वप्न मेरे, सभी उर्मिला हो गये ।।
चलने वाले थे, जो भी सफ़र के मिरे।।
दो क़दम जो चले, काफ़िला हो गये ।।
मंज़िलो का तो कोई, पता ही नहीं।।
हम बिखर के कहाँ, रास्ता हो गये।।
-अनूप अनुपम
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