रविवार, मार्च 09, 2025

बड़े नासमझ हो


                   



       122 122 122 122
     बड़े नासमझ हो, वफ़ा ढूँढते हो।।
 कि दुनिया में आके, ख़ुदा ढूँढते हो।।

पता भी है तुमको,कि क्या ढूँढते हो।।
     सुराही गरल की, सुधा ढूँढते हो।।

   ये लोगों में क्या है, बचा ढूँढते हो।।
     गिलासें हैं खाली, भरा ढूँढते हो।।

मुहब्बत कि हमसे, यूं बातें न पूँछो।।
   ये बातों में क्या है, रखा ढूँढते हो।।

   नहीं है नशा कोई, बोतल में यारों।।
     शराबों में ‌विष है, दवा ढूँढते हो।।

        भटकते रहोगे, फ़रेबी अदा में।।
    कहाँ ज़िन्दगी का, पता ढूँढते हो।।

किये पर ही अपने, भरोसा नहीं अब।।
  लकीरों में क्या है, लिखा ढूँढते हो।।

लहू से लिखी तुम, ग़ज़ल क्या कहोगे।।
  यहाँ किस को, काँटा चुभा ढूँढते हो।।

    धधकती हुई आज़ होली से पूछो।।
      मेरा दिल है कैसे जला ढूँढते हो।।
                  
  वहाँ तक तो जाती दुआ भी नहीं है।।
     उधर किस तरह मैं गया ढूँढते हो।।

  लगाते नहीं एक पौधा भी अनुपम।।
 नये रुत कि फिर भी हवा ढूँढते हो।।
                 -अनूप अनुपम








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