212 212 212 212
उड़ के जानें कहाँ से, धुआँ आ गये।।
रूबरू आज़ ज़ख्मे, निशाँ आ गये।।
झूठ छल दम्भ के, आज़ बाज़ार में।।
तुम मुहब्बत का लेके, दुकाँ आ गये।।
उसने धरती पे जब भी,जलाए दिये।।
भर के बाहों में हम,आसमाँ आ गये।।
यूं किसी से नहीं, फिर हुआ राब्ता।।
दरमियाँ तेरे मेरे, मकाँ आ गये।।
जाने किसकी रुहानी, ग़ज़ल छू गयी।।
बेजुबानों के मुँह में, ज़बाँ आ गये।।
कोई तेरी यहाँ, बात करता नहीं।।
कैसी दुनिया है, ये हम जहाँ आ गये।।
- अनूप अनुपम
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