रविवार, मार्च 16, 2025

गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो

        212  212  212  212

     कितने ज़ालिम हैं बैठे मेरे‌ गाँव में।।
 नाम सबका गिना दूँ अगर तुम कहो।।
    रात होली जली है तो मैं भी जला।।
   गाँव सारा जला दूँ अगर तुम कहो।।

      कोई शिक्षा का स्तर यहाँ पे नहीं।।
सारे लगतें हैं मुझको तो ज़ाहिल यहाँ।।
 तुम किताबों से कर लो अगर दोस्ती।।
    गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो।।

  ये शराबों की जब से दुकाँ आ गयी।।
          गाँव मेरा ये पूरा शराबी हुआ।।
    रात दिन बैठ पीते हैं मदिरा को ये।।
ज़हर इनको पिला दूँ अगर तुम कहो।।

गालियाँ सुन के लगती है गोली मुझे।।
   माफ़ कर दूँ मैं कैसे इन्हें इस तरह।।
   इन सपोलों में इतना हलाहल भरा।।
    मैं सुदर्शन चला दूँ अगर तुम कहो।।

      कोई पर्दा नहीं बाप भाई से अब।।
           यूं बे पर्दा हुयीं हैं बहू बेटियाँ।।
  सर से चुनरी सरक ये न जाए कहीं।।
       मैं दुपट्टा उढ़ा दूँ अगर तुम कहो।।

इश्क़ के नाम पर होता व्यभिचार है।।
  अब तो रहना यहाँ भी गुनहगार है।।
  साँवरे आ भी जाओ चलो हम चलें।।
ऐसी दुनिया मिटा दूँ अगर तुम कहो।।

   गाँव की हर गली बन गयी त्रासदी।।
       मैंने ढूँढा यहाँ पर नहीं है ख़ुशी।।
  ताल पोखर में बहते हुए जल तरंग।।
  गीत इनका सुना दूँ अगर तुम कहो।।

    फिर से बहने लगी ये बसन्ती हवा।।
  देख कोयल भी अब गुनगुनाने लगी।।
    प्रेम की ऐसी सुन्दर कलाओं से मैं।।
आग दिल की बुझा दूँ अगर तुम कहो।।

       जो तरफ़दार हैं झूठे मक्कार हैं।।
           यार हैं ये नहीं ये तो गद्दार हैं।।
   जिनमें में मेरे लिए है मुहब्बत नहीं।।
    ऐसे रिश्ते भुला दूँ अगर तुम कहो।।
                  कवि-अनूप, अनुपम
















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