212 212 212 212
उसकी दहलीज़ पे गिड़गिड़ाता रहा।।
ओ सुना भी नहीं मैं सुनाता रहा।।
पतझड़ों का मुझे ख़ौफ़ था ही नहीं।।
ये बहारों का मौसम सताता रहा।।
रूप यौवन कभी दिख गया जो कहीं।।
बस उसी की तरफ़ मैं लुभाता रहा।।
सारे सुर थे ख़फ़ा ताल नाराज़ थे।।
बेसुरा मैं यूं ही गुनगुनाता रहा।।
इक निवाले के ख़ातिर मेरा हमसफ़र।।
उम्र भर मुझको भूखा सुलाता रहा।।
आदमी ही था मैं आदमी की तरह।।
वास्ता आदमी का निभाता रहा ।।
-अनूप, अनुपम
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