बुधवार, अगस्त 03, 2022

गुफ़्तगू

122 122 221 2222
ग़ज़ल तो इशारों में गुफ़्तगू करती है।।
सुना है नज़ारों में गुफ़्तगू करती है।।

लबों पे खिले मेरे ओस के मोती हैं।
वो है की शरारों में गुफ़्तगू करती है।।

तिरे हुस्न का कोई तो ये जलवा देखे ।
खिजां अब बहारों में गुफ़्तगू करती है।।

नदी है समन्दर बेताब हैं होने को।
झलक है आबशारों में गुफ़्तगू करती है।।

मुकद्दर ये सब कुछ दे देना चाहे उसको।
फ़कीरी किनारों में गुफ़्तगू करती है।।
                 -अनूप कुमार अनुपम






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