सोमवार, जून 02, 2025

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है।।
मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।।

शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।।
मुझको तो मेरे गाँव की ये शाम बहुत है।।
                          -अनूप अनुपम 

जो शायरी की दुनिया में गुमनाम ‌बहुत हैं।

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जो शायरी की दुनिया में गुमनाम ‌बहुत हैं।।
कहते हैं सियासत में चलो नाम बहुत हैं।।

सच्चाई् झलकती नहीं तक़रीर में उनकी।।
लफ़्फ़ाज़ियों से देते ओ पैग़ाम बहुत हैं।।

बाहों में मेरे बाहों के घेरे नहीं डालो।।
वैसे ही मेरे सर पे ये इल्ज़ाम बहुत हैं।।

दस्तार कभी ऐसों के क़दमों में न रखना।।
ख़ादी से बनी टोपियाँ बदनाम बहुत हैं।।

मैंने कहा बैठो यहाँ कुछ हाल सुनाओ।।
कहने लगें जाने दो अभी काम बहुत हैं।।

रावन मिले कोई तो मुझे उससे मिलाना।।
मौजूदा रमायन में बने राम बहुत हैं।।

जुल्फ़ों की घनी छाँव पे इल्ज़ाम न धरते।।
हम लोग इसी क़ैद में नाकाम बहुत हैं।।

जब लोग चले आयें हैं बाज़ार की जानिब।।
उसने भी बढ़ाये हुए अब दाम बहुत हैं।।

खाये बिना ही सो गए मुफ़लिस के ये बच्चे।।
धन-धान्य भरे सड़ रहे गोदाम बहुत हैं।।

जंगल को फ़ना करके ओ हैं चैन से सोते।।
पशु पक्षियों के घर मचे कुहराम बहुत हैं।।
                             -अनूप‌ अनुपम
 




















सोमवार, मई 26, 2025

ऐब पर डाला है पर्दा रेशमी रूमाल का

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ऐब पर डाला है पर्दा रेशमी रूमाल का।।
आदमी ख़ुद बुन रहा ताना बुरे आमाल का।।

कर लिए तरक़ीब सारी यत्न ढेरों भी मगर।।
जाल बस छँटता नहीं है मन हुआ जंजाल का।।

क़त्ल होते जा रहे नाहक गुलाबों के यहाँ।।
कितना प्यासा है ये आखि़र तिल तुम्हारे गाल का।।

दिल्लगी हमने बहुत की देख ली दुनिया तेरी।।
दिल ही जब मिलता नहीं तो क्या करेंगे खाल का।।

कंस को अभिमान था की ख़त्म कर देगा निशां।
बाल बाँका कर न पाया देवकी के लाल का।।

मुल्क में बजने लगें चारों तरफ़ शहनाइयाँ।।
छ्न्द में हो जाये गर यूं राब्ता सुर ताल का।।
                         -अनूप अनुपम               

          























              

 








शोर को चीरती आवाज़ थे बाबा साहब

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           शोर को चीरती आवाज़ थे बाबा साहब।।
           हिंद के रत्न थे पुखराज थे बाबा साहब।।
      
      ज़ुल्म की आंधियों पे जीत की माला पहने।।
        न्याय के इक नये आगाज़ थे बाबा साहब।।

        शोषितों के हक़ों की बात ही ओ करते थे।।
            भेद के भाव से नाराज़ थे बाबा साहब।।

               देश के क़ायदे क़ानून को रचने वाले।।
       मुल्क में इल्म का सरताज थे बाबा साहब।।

    दलितों के ख्वाब की तस्वीर जो गढ़ने आये।।
           भारती स्वप्न के परवाज़ थे बाबा साहब।।
 
      शील सौहार्द करुणा वा दया की परिभाषा।।
          मानवी मूल्य के हमराज़ थे बाबा साहब।।
                                -अनूप अनुपम

       
       

















शुक्रवार, अप्रैल 11, 2025

कहने को अभी बाकी अरमान बहुत हैं

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कहने को अभी बाकी ये अरमान बहुत हैं।।
दिल में उठे जज़्बातों के तूफ़ान बहुत हैं।।

इन्सान बचे ही नही हैवान बहुत हैं।।
हम आज़ इसी ग़म से परेशान बहुत हैं।।

करते न ग़रीबों पे यूँ एहसान बहुत हैं।।
सुनता हूँ मेरी बस्ती में धनवान बहुत हैं।।

फुटपाथ‌ पे क्यों सो रहे इन्सान बहुत हैं।।
खाली पड़े घर द्वार तो वीरान बहुत हैं।।

दिल में छुपा के बैठे जो शैतान बहुत हैं।।
वो पत्थरों में ढूँढते भगवान बहुत हैं।।

कुछ लोग मेरे बारे में अनजान बहुत हैं।।
उनकी न शिकायत करो नादान बहुत हैं।।

जनता से मिले इनको भी मतदान बहुत हैं।।
अब लूटने को देश के प्रधान बहुत हैं।।

लागू कभी होते नहीं फ़रमान बहुत हैं।।
दरबान सभी कर रहे यशगान बहुत हैं।।

सरकार ने दिये जिन्हें वरदान बहुत हैं।।
दिन रात वही कर रहे गुणगान बहुत हैं।।

अज्ञानियों को मिलते जहाँ मान बहुत हैं।।
गलियों में भटकते वहीं पे ज्ञान बहुत हैं।।

इस देश के ख़ातिर हुए क़ुर्बान बहुत हैं।।
वंदन है उन्हें उनके ये बलिदान बहुत हैं।।
                       -अनूप अनुपम

 




सोमवार, अप्रैल 07, 2025

अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी

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          अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी।।
        गुलशन सा महकने में बड़ी देर लगेगी।।

         चलती न बगीचों में हैं मुद्दत से हवाएं।।
         ख़ुशबू को बिखरने में बड़ी देर लगेगी।।

   उम्मीदे वफ़ा रखना न दुनिया में किसी से।।
           पत्थर हैं पिघलने में बड़ी देर लगेगी।।

मुश्किल हो डगर फिर भी तुम्हें चलना है बचकर।।
          गिरने व संभलने में बड़ी देर लगेगी।।

      पौरुष पे भरोसा करो हिम्मत नहीं हारो।।
             तक़दीर संवरने में बड़ी देर लगेगी।।

        चट्टान बने‌ बैठे हो तुम तो मेरे हमदम।।
       दिल बनके धड़कने में बड़ी देर लगेगी।।

      बदले हुए तेवर हैं ये बदली हुई रुत ने।।
        हमको तो बदलने में बड़ी देर लगेगी।।
                         -अनूप अनुपम






मंगलवार, अप्रैल 01, 2025

मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।



      1212 1122 1212 22

मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।।
यहाँ पे चेहरा ये जिसका सभी से काला है।। 

          भरे पड़े हैं बे ईमान ऐसे दुनिया में।।
      उसे समझते हो ईमान रखने वाला है।।
   
    निकाल देंगे तुम्हारी जो है ग़लतफहमी।।
     कभी‌ पड़ा नहीं हमसे तुम्हारा पाला है।।

    ख़िलाफ़ कोई नहीं बोलता अदालत में।।
    हरिक ज़बां पे उसी‌ ने लगाया ताला है।।
   
   रखी हुई है ये घर द्वार ज़िन्दगी गिरवी ।।
 बना हुआ है यूँ लगता कहीं का लाला है।।

कभी भी करना नहीं उससे दोस्ती अनुपम।।
  गले में डाल जो चलता सियासी माला है।।                            -अनूप अनुपम





गुरुवार, मार्च 27, 2025

दुनिया को मेरे मौला

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      दुनिया को मेरे मौला तूं ऐसा इमाम दे।।
      इन्सान की ज़बान पे अल्ला न राम दे।।

           प्यासे हुये हैं सारे इन्हें इंतज़ाम दे।।
 खाली पड़े हैं मयकदे भर भर के जाम दे।।

अब तो इधर उधर की न बातें तमाम कर ।।
    बेरोज़गार हो गये सब सबको काम दे ।।

     ये बस्तियाँ हैं जल रहीं तेरी मशाल से।।
        हो रौशनी घरों में तूू्ँ ऐसा निज़ाम दे।।

     घर में हमारे इल्म कि शम्मा जली रहे।।
  हमको नया ज़माना नयी सुब्हो शाम दे।।

वहशत के भेड़ियों को सभी दरकिनार कर।।
 इंसानियत को दुनिया में ऊँचा मुकाम दे।।

   जीवों का रक्त पीना यहाँ जब हलाल है।।
ममता दया व करुणा को मालिक हराम दे।।

  सद्भावना की ज्योति जला दे समाज में।।
       फैली हुई कुरीतियों को रोकथाम दे।।

बोते सृजन के बीज जो मरुथल में हैं कहीं।
मजबूर उन किसानों को कुछ एहतराम दे।।

  बिकने को आदमी यहाँ लाचार है बहुत ।।
मिलता नहीं ओ शक्स जो की पूरा दाम दे।।

   शब्दों से मेरे चोट किसी को लगे नहीं।।
वाणी मेरी ये बस में हो मुझको लगाम दे।।

  सब भेद भाव मन से मिटा दे मेरे अभी।।
रुचि है न जात पात में अनुपम ही नाम दे।।
                  -अनूप अनुपम







गुरुवार, मार्च 20, 2025

सारे तुम्हारे दोस्त कमाने चले गए


       2212 1211  2212  12
    देके हमारे हम को ये् ताने चले गये।।
      सारे तुम्हारे दोस्त कमाने चले गये ।।

खेले थे गोलियाँ जहाँ चलतीं हैं गोलियाँ।
बचपन के प्यारे दिन ओ ज़माने चले गये।

   वैसे उन्हें तो रहता कभी काम था नही।
फिर भी ओ् देखो कर के् बहाने चले‌ गये।

शहरों से लौट आओ कि आँगन पुकारते।।
     पंछी कहाँ पे चुगने को दाने चले गये।।

    मैं रो रहा हूँ लेके् ये् काँधों पे ज़िन्दग़ी।।
सब तो‌ लगा के मुझ को् ठिकाने चले गये।

अपना पराया हम तो कभी सोचते नहीं।।
  हर इक घरों की आग़ बुझाने चले गये।।

 घर द्वार खेत बाग किसी का नहीं हुआ।।
    सब रह गया यहीं पे दिवाने चले गये।।

आओ बहा लें आँसू कभी उनकी राह में।
जो फ़र्ज़ इस वतन का निभाने चले गये।।

वीरान घर हुआ है यूं दौलत की चाह में।
सब क़र्ज़ ज़िन्दग़ी का चुकाने चले गये।।

जब हो सकीं न पूरी ये् घर की ज़रूरतें।।
तो बोझ ख़्वाहिशों का उठाने चले गये।।

हमको ख़बर न थी ओ है ख़ंजर लिये हुये
    हम मौत को गले से लगाने चले गये।।

  सब साथ बैठते थे यूँ चौपाल में कभी।।
  अब वक़्त फ़ुर्सतों के सुहाने चले गये।।
                      -अनूप, अनुपम

    
















     



















मंगलवार, मार्च 18, 2025

।।उसकी दहलीज़ पे गिड़गिड़ाता रहा।।

          212 212 212 212

  उसकी दहलीज़ पे गिड़गिड़ाता रहा।।
       ओ सुना भी नहीं मैं सुनाता रहा।।

  पतझड़ों का मुझे ख़ौफ़ था ही नहीं।।
      ये बहारों का मौसम सताता रहा।।

रूप यौवन कभी दिख गया जो कहीं।।
   बस उसी की तरफ़ मैं लुभाता रहा।।

     सारे सुर थे ख़फ़ा ताल नाराज़ थे।।
         बेसुरा मैं यूं ही गुनगुनाता रहा।।

इक निवाले के ख़ातिर मेरा हमसफ़र।।
   उम्र भर मुझको भूखा सुलाता रहा।।

   आदमी ही था मैं आदमी की तरह।।
     वास्ता आदमी का निभाता रहा ।।
                    -अनूप, अनुपम

   














।।गलतियाँ अपनी कर लो सभी ठीक तुम।।

    212      212   ‌  212     212

ग़लतियाँ अपनी कर लो सभी ठीक तुम।
       काम करते रहो सारे निर्भीक तुम।।

          यूँ कबूतर फ़साना पुराना हुआ।।
    लेके आओ नयी कोई तकनीक तुम।।

   पायलों की खनक घुल गयी कान में।।
    आ गये हो मेरे कितने नज़दीक तुम।।
                     
      बन गये सब हक़ीक़त फ़साने मेरे ।।
      करने आये नहीं यार तसदीक़ तुम।।

इस मुहब्बत से दिल भर गया हो अगर।।
   ढूँढ़ लो फिर जहाँ कोई रमणीक तुम।।

   अब लड़कपन गया औ जवानी गयी।।
 ज़िन्दगी की पकड़ लो सही लीक तुम।।
                        (-अनूप , अनुपम )






रविवार, मार्च 16, 2025

गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो

        212  212  212  212

     कितने ज़ालिम हैं बैठे मेरे‌ गाँव में।।
 नाम सबका गिना दूँ अगर तुम कहो।।
    रात होली जली है तो मैं भी जला।।
   गाँव सारा जला दूँ अगर तुम कहो।।

      कोई शिक्षा का स्तर यहाँ पे नहीं।।
सारे लगतें हैं मुझको तो ज़ाहिल यहाँ।।
 तुम किताबों से कर लो अगर दोस्ती।।
    गाँव जन्नत बना दूँ अगर तुम कहो।।

  ये शराबों की जब से दुकाँ आ गयी।।
          गाँव मेरा ये पूरा शराबी हुआ।।
    रात दिन बैठ पीते हैं मदिरा को ये।।
ज़हर इनको पिला दूँ अगर तुम कहो।।

गालियाँ सुन के लगती है गोली मुझे।।
   माफ़ कर दूँ मैं कैसे इन्हें इस तरह।।
   इन सपोलों में इतना हलाहल भरा।।
    मैं सुदर्शन चला दूँ अगर तुम कहो।।

      कोई पर्दा नहीं बाप भाई से अब।।
           यूं बे पर्दा हुयीं हैं बहू बेटियाँ।।
  सर से चुनरी सरक ये न जाए कहीं।।
       मैं दुपट्टा उढ़ा दूँ अगर तुम कहो।।

इश्क़ के नाम पर होता व्यभिचार है।।
  अब तो रहना यहाँ भी गुनहगार है।।
  साँवरे आ भी जाओ चलो हम चलें।।
ऐसी दुनिया मिटा दूँ अगर तुम कहो।।

   गाँव की हर गली बन गयी त्रासदी।।
       मैंने ढूँढा यहाँ पर नहीं है ख़ुशी।।
  ताल पोखर में बहते हुए जल तरंग।।
  गीत इनका सुना दूँ अगर तुम कहो।।

    फिर से बहने लगी ये बसन्ती हवा।।
  देख कोयल भी अब गुनगुनाने लगी।।
    प्रेम की ऐसी सुन्दर कलाओं से मैं।।
आग दिल की बुझा दूँ अगर तुम कहो।।

       जो तरफ़दार हैं झूठे मक्कार हैं।।
           यार हैं ये नहीं ये तो गद्दार हैं।।
   जिनमें में मेरे लिए है मुहब्बत नहीं।।
    ऐसे रिश्ते भुला दूँ अगर तुम कहो।।
                  कवि-अनूप, अनुपम
















गुरुवार, मार्च 13, 2025

यूं आँखों में तेरी इनायत नहीं है

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         यूं आँखों में तेरी, इनायत नहीं है।।
ओ सब कुछ मगर इक मुहब्बत नहीं है।।

        ये शर्मो हया सब,अदाकारियाँ हैं।।
कि सब कुछ है तुझमें,नज़ाकत नहीं है।।

  क़िताबी ये बातें, किया मत करो तुम।।
      ज़माने में इसकी,हक़ीक़त नहीं है।।

      अकेले रहो तुम,ख़ुमारी में अपनी।।
  किसी से जो मिलती,तबीयत नहीं है।।

     तूं होगा ख़ुदा कोई, अपने लिए पै।।
  मैं काफ़िर हूँ,मुझमें अक़ीदत नहीं है।।

फ़रेबों की दुनिया‌ है, छलिया बहुत हैं।।
कि लोगों में कुछ भी,शराफ़त नहीं है।।

     नहीं होगी तुमसे,ये बन्दा नवाज़ी।।
   तो मुझसे भी होती,इबादत नहीं है।।

        प्रजा ये ग़ुलामी हमेशा सहेगी।।
जो ज़ुल्मों से करती बग़ावत नहीं है।।

 बदलती है आशिक हज़ारों तरह के।।
  तवायफ है ये बस,सियासत नहीं है।।

ज़माने में सिक्का, यूं चलता तुम्हारा।।
   जबां पे किसी के, हुकूमत नहीं है।।
   
    चलेगा किसी दिन,तो चर्चा हमारा।।
अभी तो मिला हमको,बहुमत नहीं है।।

     दलीलें नहीं कोई, चलतीं वहाँ पे।।
      जहाँ पे तुम्हारी,अदालत नहीं है।।

शराफ़त की बातें,तो करता नहीं ओ।।
 निभाता भी मुझसे,अदावत नहीं है।।
                     -अनूप,अनुपम



 



























मंगलवार, मार्च 11, 2025

ये हिन्दुस्तान की ख़ुशबू

 ये हिन्दुस्तान की ख़ुशबू,
   हरे मैदान की ख़ुशबू।।

  यहाँ होली सी आती है,
मिरे रमज़ान की ख़ुशबू।।

   हवायें शहर में लातीं हैं,
  जब बाग़ान की ख़ुशबू।।

 महक जाती है् सांसों में,
भरे खलिहान की ख़ुशबू।।

यहीं खुसरो के् घर खेली,
यहीं तुलसी के घर खेली।।

भजन मीरा का् गाती सी,
यहाँ रसखान की ख़ुशबू।।

    जले शैतान की होली,
    उड़े ईमान की ख़ुशबू।।

     तुम्हारे दीप से आये,
अगर लोबान की ख़ुशबू।।

कृष्ण के ज्ञान की महिमा,
बुद्ध के ध्यान की ख़ुशबू।।

 बहे तुलसी की् बगिया में,
मिरे कुरआन की ख़ुशबू।।

    वही है आन की ख़ुशबू,
   वही है शान की ख़ुशबू।।

       जहाँ टैगोर गातें हैं,
वतन के गान की ख़ुशबू।।
         -अनूप अनुपम 






























































 







सोमवार, मार्च 10, 2025

प्यार का इक नया फ़लसफ़ा हो गए।।

प्यार का इक नया फ़लसफ़ा हो गए।।
   रूप देखा तो फ़िर आइना हो गए।।

ऐसे पत्थर थे ओ जो पिघलता नही।।
      प्रेम के राग पर मोम सा हो गए।।

लफ्ज़ ज़ख्मों को मरहम लगाने लगे।
       दर्द सदियों पुराने दवा हो गए।।

कह दिया जब हक़ीक़त सरे बज़्म में।
   मेरे अपने भी मुझसे ख़फ़ा हो गए।।

  अब वफ़ाओं पे इनके भरोसा नही।।
        हुस्न वाले यहाँ बेवफ़ा हो गए।।
    
   मोह लेतीं हैं, मन को ये बातें तिरी।।
  तुम तो  इन्सान  से, देवता  हो गये।।

तुम तो सिद्दार्थ का, कोई उपदेश थे।।
   हम तो ईमाम का, कर्बला हो गये ।।

प्रेम का ये चलन, तुम न समझे लखन।।
     स्वप्न मेरे,  सभी उर्मिला हो गये ।।

  चलने वाले थे, जो भी सफ़र के मिरे।।
  दो क़दम जो चले, काफ़िला हो गये ।।

    मंज़िलो का तो कोई, पता ही नहीं।।
     हम बिखर के कहाँ, रास्ता हो गये।।
                            -अनूप अनुपम











    
  


रविवार, मार्च 09, 2025

उड़ के जाने कहां से धुआं आ गये



212       212     212     212
उड़ के जानें कहाँ से, धुआँ आ गये।।
  रूबरू आज़ ज़ख्मे, निशाँ आ गये।।

  झूठ छल दम्भ के, आज़ बाज़ार में।।
तुम मुहब्बत का लेके, दुकाँ आ गये।।

उसने धरती पे जब भी,जलाए दिये।।
भर के बाहों में हम,आसमाँ आ गये।।

   यूं किसी से नहीं, फिर हुआ राब्ता।।
        दरमियाँ तेरे मेरे, मकाँ आ गये।।

जाने किसकी रुहानी, ग़ज़ल छू गयी।।
    बेजुबानों के मुँह में, ज़बाँ आ गये।।

      कोई तेरी यहाँ, बात करता नहीं।।
कैसी दुनिया है, ये हम जहाँ आ गये।।
                           - अनूप अनुपम 















ये दावे से अपना ज़िगर बोलता है

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  ये् दावे से् अपना, ज़िगर बोलता है।।
कि दुनिया में,अक्लो हुनर बोलता है।।

है् बातों का् जो भी, असर बोलता है।।
    मिरा गाँव क़स्बा, नगर बोलता है।।

ओ जब भी जहाँ भी, जिधर बोलता है।।
        हमेशा ही् झूठी, ख़बर बोलता है।।

कहा था ये् मैंने की्‌, मत बोलना तुम।।
ओ् क़ायल है् देखो, मगर बोलता है।।

भरोसा नहीं कोई, सीरत पे उसकी।।
ओ बातें इधर की, उधर बोलता है।।

जो् औरों से नज़रें, मिलाता नहीं था।।
छुपा कर ओ हमसे, नज़र बोलता है।।

ये उम्मीद सब हैं, लगा कर के बैठे।।
कि अबकी दफ़ा, ओ किधर बोलता है।।

                       -अनूप, अनुपम









बड़े नासमझ हो


                   



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     बड़े नासमझ हो, वफ़ा ढूँढते हो।।
 कि दुनिया में आके, ख़ुदा ढूँढते हो।।

पता भी है तुमको,कि क्या ढूँढते हो।।
     सुराही गरल की, सुधा ढूँढते हो।।

   ये लोगों में क्या है, बचा ढूँढते हो।।
     गिलासें हैं खाली, भरा ढूँढते हो।।

मुहब्बत कि हमसे, यूं बातें न पूँछो।।
   ये बातों में क्या है, रखा ढूँढते हो।।

   नहीं है नशा कोई, बोतल में यारों।।
     शराबों में ‌विष है, दवा ढूँढते हो।।

        भटकते रहोगे, फ़रेबी अदा में।।
    कहाँ ज़िन्दगी का, पता ढूँढते हो।।

किये पर ही अपने, भरोसा नहीं अब।।
  लकीरों में क्या है, लिखा ढूँढते हो।।

लहू से लिखी तुम, ग़ज़ल क्या कहोगे।।
  यहाँ किस को, काँटा चुभा ढूँढते हो।।

    धधकती हुई आज़ होली से पूछो।।
      मेरा दिल है कैसे जला ढूँढते हो।।
                  
  वहाँ तक तो जाती दुआ भी नहीं है।।
     उधर किस तरह मैं गया ढूँढते हो।।

  लगाते नहीं एक पौधा भी अनुपम।।
 नये रुत कि फिर भी हवा ढूँढते हो।।
                 -अनूप अनुपम








छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है।। मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।। शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।। मुझको तो मेरे गाँव की ये...