साकी बहुत मिले यहां तक मैखाने में।
ओ असर नहीं था उन पयमानों में।
उसे क्या खबर जिसने ये आग लगाई है।
कितना जले हैं हम आग बुझाने में।
जब कारवां से मंजिल तक कुछ शेष ना रहा।
लोग फिर आए हैं हमदर्दी जताने में।
चर्चा तो अब हो रहा है मेरा जमाने में।
जब नाकाम हो गए हैं खुद को समझाने में।
कितनों ने जख्मों पर मरहम लगाया।
कितने तो खुश थे राख को उड़ाने में।
-अनूप कुमार अनुपम
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