न घर देखते हैं न दर देखते हैं।
शजर के परिन्दे शजर देखते हैं।।
कहीं हो ठिकाना कहीं भी बसर हो।
नजर में उसी की नजर देखते हैं।।
रखे आज सब ने नकाबों मे् खंजर।
हुआ चाक किसका जिगर देखते हैं।।
दिलों में समंदर छिपाए हुए हम।
जले आज कितने नगर देखते हैं।।
झुका जा रहा है हिमालय का् सर अब।
यहां अब किसे है खबर देखते हैं।।
अनूप कुमार अनुपम
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