होठों पे दबी दबी सी ख़ामोशियाँ रह गयी ंं।
तुम तो नहीं हो मगर ये सिसकियाँ रह गयी ंं।
गले से नीचे उतरती नही ये दुनिया की बातें।
तुम चले तो गये मगर ये हिचकियाँ रह गयीं।
आँखों की रोशनी से अंग अंग था जल गया।
हम पे गिरीं थीं कभी ओ बिजलियाँ रह गयी ं
खुद के ही सवाल पर नजर अंदाज करते रहे।
झुकी झुकी सी पलकें ओ शर्मिंदगियां रह गयी ं
अनूप तेरा इलाका भले ही छोड़ आयें हैं हम।
हुक्म ए मोहब्बत से बधीं ओ बेड़ियां रह गयी ंं।
-अनूप कुमार अनुपम
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