कलम में हमारे ओ धार आ गई है।
जो मां हंस पे हो सवार आ गई है।।
ये दुनिया तो लगती थी वीरान मुझको।
जो तुम आ गये तो बहार आ गई है।।
वतन का कलेजा फटा जा रहा अब।
सियासत की ऐसी फुहार आ गई है।।
ये सावन यहां अब बरसता नहीं तो।
कलेजे मे भू के दरार आ गई है।।
यहीं थे यहीं हो यहीं क्या रहोगे।
चलो साथ मेरे कतार आ गई है।।
सियासी ये ढांचा बदलना पड़ेगा।
वतन के सपूतों गुहार आ गई है।।
-अनूप कुमार अनुपम