मंगलवार, जून 26, 2018

कलम में हमारे ओ धार आ गई है

      कलम में हमारे ओ धार आ गई है।
      जो मां हंस पे हो सवार आ गई है।।

  ये दुनिया तो लगती थी वीरान मुझको।
    जो तुम आ गये तो बहार आ गई है।।

    वतन का कलेजा फटा जा रहा अब।
   सियासत की ऐसी फुहार आ गई है।।

    ये सावन यहां अब बरसता नहीं तो।
        कलेजे मे भू के दरार आ गई है।।

          यहीं थे यहीं हो यहीं क्या रहोगे।
        चलो साथ मेरे कतार आ गई है।।
   
        सियासी ये ढांचा बदलना पड़ेगा।
        वतन के सपूतों गुहार आ गई है।।
       
               -अनूप कुमार अनुपम 

शुक्रवार, जून 15, 2018

इश्क ने हमे ऐसे महल में लाके छोड़ा है।

इश्क ने हमें ऐसे महल में लाके छोड़ा है।।
         जहां मेरे सिवा और कोई नही है।।

टकराकर इन्ही दीवारों से मेरी धडकनें।
       फिर मुझ तक ही लौट आतीं हैं।।
         
        मैं खामोश हूं।लेकिन मुझे शक है।
      कोई तो है यहां जो गीत गा रहा है।।
       
                 इन्हीं गीत के सुर-तालों ने।    
     मेेरे जीवन के सुरतालों को तोड़कर।।
 
      कुछ नूपुर लगे हुये हैं एक धागे में।
            समेट लिया है जब कभी भी।।

             कहीं भी ओ खनक जातें हैं।
          तो हम टूट कर बिखर जातें हैं।

              -अनूप कुमार अनुपम 

मंगलवार, जून 12, 2018

जिसने मुझे हर खुशी दी है।

जिसने मुझे हर खुशी दी है।
जिसने मुझे ये जिंदगी दी है।
जो अपनी यादों से कभी दूर नहीं जाने देता।
उसे मेैं बेवफा कैसे कह दूं।

चला तो मेरे साथ कुछ दूर ही सही।
रुलाया ही मगर अपनाया तो सही।
जो हमें कभी तन्हा नहीं रहने दिया।
उसे मैं खता कैसे कह दूं।

चलो, मैं बहक गया था।
किसी अनजान रस्ते पे भटक गया था।
जो बेवक्त आके सताता रहता है मुझे।
उसको मैं सपना कैसे कह दूं।

ओ जख्म ही दे मैं मुस्कुराकर सह लूं।
ऐसी ताकत नहीं है उसके बगैर रह लूं।
क्या है उसकी मर्जी ये तो बस रब ही जाने।
मैं उसे अपना कैसे कह दूं।
                      -अनूप कुमार अनुपम







गुरुवार, जून 07, 2018

मैंने जो नगमें गायें हैं

मैंने जो नगमें गायें हैं
इन वादियों में इन घाटीओं में।
महफिलों में और तन्हाइयों में।
ओ सदायें गूंजती रहेंगी सदा।
जब तक ये दुनिया ये आलम रहेगा।

खनकती रहेगी तेरी पायल।
इन्हीं वादियों में।मैं उसी पायल की धुन पर
नए-नए कविताओं की नई-नई दुनिया रचता रहूंगा।
तुमने इन फिजाओं में जो खुशबू बिखराई है।

ओ इन हवाओं में महकती रहेंगीं सदा।
मैं उसी खुशबू में मतवाला होकर,
तुम से रूबरू होता रहूंगा।
मुझको ऐसा एहसास होगा।
तुम हो यही कही पर, इन्हीं नजारों में,
इन्हीं बहारों में,
छुप कर कहीं से
देख रही हो मुझे।
आवाज देती हो हाथ बढ़ाती हो।

मगर ये जाने कैसे मुझसे छूट जाते हैं।
मैं भटकता रह जाऊंगा इसी तरह।
गर तुमने मेरा हाथ ना थामा तो।
कहीं से आ जाओ इधर।

एक झलक दे जाओ,
मगर आओ तो सही।
मेरे हर शब्द तुझे ही तो बुलाते हैं।
हां यह शब्द मैंने ही रचे हैं।
मगर ये तेरे जलवों की ही तो करामात है।

तुम चली आई तो,
यही शब्द बसंत बन कर
फिर खिलखिलाने लगेंगें।
ना आयी तो पतझड़ में गिरे
नींम के सूखे फूलों की तरह सूख जाएंगे।
मैंने जो नगमें गायें हैं।।
                       अनूप कुमार अनुपम 

सोमवार, जून 04, 2018

मैं कविता नहीं लिखता तेरी तस्वीर बनाता हूं‌

मैं कविता नहीं लिखता तेरी तस्वीर बनाता हूं
अपने लहू के रंगों से कागज पे लकीर बनाता हूं

बादल सी उतरे धरती पे दिल मेरे तूं कोहरा बन के।
मैं खयालो की दुनिया में उसको कश्मीर बनाता हूं।

                           -अनूप कुमार अनुपम







शुक्रवार, जून 01, 2018

होठों पे दबी दबी सी खामोशियां रह गईं

होठों पे दबी दबी सी ख़ामोशियाँ रह गयी ंं।
तुम तो नहीं हो मगर ये सिसकियाँ रह गयी ंं।

गले से नीचे उतरती नही ये दुनिया की बातें।
तुम चले तो गये मगर ये हिचकियाँ रह गयीं।

आँखों की रोशनी से अंग अंग था जल गया।
हम पे गिरीं थीं कभी ओ बिजलियाँ रह गयी ं

खुद के ही सवाल पर नजर अंदाज करते रहे।
झुकी झुकी सी पलकें ओ शर्मिंदगियां रह गयी ं

अनूप तेरा इलाका भले ही छोड़ आयें हैं हम।
हुक्म ए मोहब्बत से बधीं ओ बेड़ियां रह गयी ंं।
                        -अनूप कुमार अनुपम 

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है।। मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।। शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।। मुझको तो मेरे गाँव की ये...