सोमवार, मार्च 12, 2018

फिरते पागल जैसे हैं

  उसने देखा एक नज़र फिरते पागल जैसे हैं।
धूप से आँच लगे न मुझको छाये बादल जैसे हैं।

पँखुड़ियों से होठ तुम्हारे चले कहीं बाहों के सहारे।
खोये हैं हम खाब में जिनके ओ लगते मखमल जैसे हैं।

कब से तरसी हैं निगाहें तुझे बुलायें मेरी पनाहें।
ऐ मन्जिल तेरी राहों में हम लिपटे आँचल जैसे।

बहती हुई ये मधुर हवायें कुछ ज़ख्म नये पिरोती हैं।
हैं बसे हुए आँखों में मेरे ओ दिखते काजल जैसे हैं।

गीत ग़ज़ल सब तेरी बातें घुट घुट कर करती हैं रातें।
चाहत है उन क़दमों की बंधे उस पायल जैसे हैं।
                            -अनूप कुमार अनुपम 

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