शुक्रवार, अप्रैल 11, 2025

कहने को अभी बाकी अरमान बहुत हैं

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कहने को अभी बाकी ये अरमान बहुत हैं।।
दिल में उठे जज़्बातों के तूफ़ान बहुत हैं।।

इन्सान बचे ही नही हैवान बहुत हैं।।
हम आज़ इसी ग़म से परेशान बहुत हैं।।

करते न ग़रीबों पे यूँ एहसान बहुत हैं।।
सुनता हूँ मेरी बस्ती में धनवान बहुत हैं।।

फुटपाथ‌ पे क्यों सो रहे इन्सान बहुत हैं।।
खाली पड़े घर द्वार तो वीरान बहुत हैं।।

दिल में छुपा के बैठे जो शैतान बहुत हैं।।
वो पत्थरों में ढूँढते भगवान बहुत हैं।।

कुछ लोग मेरे बारे में अनजान बहुत हैं।।
उनकी न शिकायत करो नादान बहुत हैं।।

जनता से मिले इनको भी मतदान बहुत हैं।।
अब लूटने को देश के प्रधान बहुत हैं।।

लागू कभी होते नहीं फ़रमान बहुत हैं।।
दरबान सभी कर रहे यशगान बहुत हैं।।

सरकार ने दिये जिन्हें वरदान बहुत हैं।।
दिन रात वही कर रहे गुणगान बहुत हैं।।

अज्ञानियों को मिलते जहाँ मान बहुत हैं।।
गलियों में भटकते वहीं पे ज्ञान बहुत हैं।।

इस देश के ख़ातिर हुए क़ुर्बान बहुत हैं।।
वंदन है उन्हें उनके ये बलिदान बहुत हैं।।
                       -अनूप अनुपम

 




सोमवार, अप्रैल 07, 2025

अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी

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          अब फूलने फलने में बड़ी देर लगेगी।।
        गुलशन सा महकने में बड़ी देर लगेगी।।

         चलती न बगीचों में हैं मुद्दत से हवाएं।।
         ख़ुशबू को बिखरने में बड़ी देर लगेगी।।

   उम्मीदे वफ़ा रखना न दुनिया में किसी से।।
           पत्थर हैं पिघलने में बड़ी देर लगेगी।।

मुश्किल हो डगर फिर भी तुम्हें चलना है बचकर।।
          गिरने व संभलने में बड़ी देर लगेगी।।

      पौरुष पे भरोसा करो हिम्मत नहीं हारो।।
             तक़दीर संवरने में बड़ी देर लगेगी।।

        चट्टान बने‌ बैठे हो तुम तो मेरे हमदम।।
       दिल बनके धड़कने में बड़ी देर लगेगी।।

      बदले हुए तेवर हैं ये बदली हुई रुत ने।।
        हमको तो बदलने में बड़ी देर लगेगी।।
                         -अनूप अनुपम






मंगलवार, अप्रैल 01, 2025

मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।



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मकाम उसका सियासत में सबसे आला है।।
यहाँ पे चेहरा ये जिसका सभी से काला है।। 

          भरे पड़े हैं बे ईमान ऐसे दुनिया में।।
      उसे समझते हो ईमान रखने वाला है।।
   
    निकाल देंगे तुम्हारी जो है ग़लतफहमी।।
     कभी‌ पड़ा नहीं हमसे तुम्हारा पाला है।।

    ख़िलाफ़ कोई नहीं बोलता अदालत में।।
    हरिक ज़बां पे उसी‌ ने लगाया ताला है।।
   
   रखी हुई है ये घर द्वार ज़िन्दगी गिरवी ।।
 बना हुआ है यूँ लगता कहीं का लाला है।।

कभी भी करना नहीं उससे दोस्ती अनुपम।।
  गले में डाल जो चलता सियासी माला है।।                            -अनूप अनुपम





छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है

छप्पर में हमारे हमें आराम बहुत है।। मिलता यहाँ पे हमको विश्राम बहुत है।। शहरों में खिली सुब्ह मुबारक रहे तुमको।। मुझको तो मेरे गाँव की ये...