शनिवार, जुलाई 22, 2017

कुछ पाने की जब ललक रहे

कुछ पाने की जब ललक रहे।
निरंतर रहे अथक रहे।
बाकी न कोई सबक रहे।
कुछ पाने की जब ललक रहे।
पांव हमारे रुके न कहीं पर।
सर हमारा झुके न कहीं पर।
सभंल तूफानों से मंजिल वहीँ पर
आँखों में उसी की झलक रहे।
कुछ पाने की जब ललक रहे।
रही तूं चलता जायेगा।
शाम ये ढलता जायेगा।
घनघोर अँधेरा छायेगा।
फिर भी न घबराएगा।
आजादी का उगेगा सूरज।
बस तुझ में न कोई फर्क रहे।
कुछ पाने की जब ललक रहे।
नीद से जागो सोने वालों।
किस्मत पे तुम रोने वालों।
चलकर साथ समय का पा लो।
तुम खुद से ही न सजक रहे।
कुछ पाने की जब ललक रहे।
             -अनूप कुमार अनुपम 

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