शुक्रवार, जून 09, 2017

हे कबीरा की मृग नैनी तुम ,,हो साखी सबद रमैनी तुम


हे कबिरा की मृग नैनी तुम ,हो साखी सबद रमैनी तुम !
कह गया कबिरा बेचारा , तेरी चाह में सब हारा !!
यह दास कह रहा दुबारा,तुम्ही ही हो मेरा सहारा!
क्या समझ रही बेचैनी तुम !!


हे कबिरा की मृग नैनी तूम , हो साखी सबद रमैनी तुम !
अहम् छोड़ो स्वयं में जाओ ,खुद के अन्दर मुझको पाओ !!
आगे फुलों के बाग़ सजाओ ,काटों को भी गले लगाओ !
हो पढ़े लिखे अज्ञानी तुम !!

 हे कबीरा की मृग नैनी तुम,हो साखी सबद रमैनी तुम

पहनाओ कंठ शब्द की माला, रोम-रोम में छलके प्याला
अन्धा है संसार यह सारा ,करती हो तुम गड़बड़ झाला!!
पर हो परम सयानी तुम
हे कबीरा की मृग नैनी तुम, हो साखी सबद रमैनी तुम
चाहे तो बिना ताल बजाये,बिना राग के कौवा गाये !
सुर तेरा कोई समझ न पाए ,पर सबका हृदय छू जाये
इस कलम की कोकिल बैनी तुम !!

                                               --अनूप कुमार मौर्या












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