ऐब पर डाला है पर्दा रेशमी रूमाल का।।
आदमी ख़ुद बुन रहा ताना बुरे आमाल का।।
कर लिए तरक़ीब सारी यत्न ढेरों भी मगर।।
कर लिए तरक़ीब सारी यत्न ढेरों भी मगर।।
जाल बस छँटता नहीं है मन हुआ जंजाल का।।
क़त्ल होते जा रहे नाहक गुलाबों के यहाँ।।
कितना प्यासा है ये आखि़र तिल तुम्हारे गाल का।।
दिल्लगी हमने बहुत की देख ली दुनिया तेरी।।
दिल ही जब मिलता नहीं तो क्या करेंगे खाल का।।
कंस को अभिमान था की ख़त्म कर देगा निशां।
बाल बाँका कर न पाया देवकी के लाल का।।
मुल्क में बजने लगें चारों तरफ़ शहनाइयाँ।।
छ्न्द में हो जाये गर यूं राब्ता सुर ताल का।।
-अनूप अनुपम